गुरुवार, 1 नवंबर 2012

ब्रह्म मुहूर्त में स्नान का महत्व -"""सेरा करो स्नान"""-

सेरा उठे सुजीव छाँण जल लीजिए, दातण कर करे सिनान जिवाणी जल कोजिये" बत्तीस आंखड़ी(वील्हाजी) । प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सर्वप्रथम शौचादि क्रिया से निवृत होकर दांतुन करें, फिर छाँण कर जल ग्रहण करके स्नान करें। यहीं से जीवन गति प्रारंभ होती है। स्नान करने के पश्चात ही अन्य कोई घर का कार्य या पूजा पाठ हवनादिक हो सकता हैं। बिना स्नान किए तो कुछ भी शुभ कार्य नहीं हो सकता। रात्रि में हम लोग शयन करते हैं तो एक प्रकार की मृत्यु हो जाती हैं,बुरे स्वप्न आते हैं, आलस्य का आक्रमण हो जाता हैं जिससे शरीर अस्वस्थ, आलसी, कर्तव्यमुढ़ हो जाती हैं। कोई भी शुभ दिनचर्या नहीं बन पाती है। इन्हीं सभी शारीरिक दोषों की निवृति के लिए प्रातःकालीन स्नान का विधान किया हैं। प्रातःकालीन स्नान से शरीर शुद्ध पवित्र तथा स्वस्थ होगा तो इस शरीर में स्थित मन, बुद्धि आदि भी पवित्र होंगे तथा सभी कार्य सुरुचिपूर्ण तथा सफलतापूर्वक ही होंगे। शब्द नं. 104 के प्रसंग में गुरु जाम्भोजी ने वस्त्र, हाथी, घोड़ा, घी आदि के दान से भी अधिक महत्वपूर्ण स्नान को स्वीकार किया हैंक्योंकि दान का प्रभाव तो क्षणिक होता हैं किन्तु स्नानादिक पवित्र दिनचर्या का प्रभाव दिर्घकालीन होता हैं, इनसे जीवन निर्माण होता हैं। इस स्नान करने के नियम केकारण तो बिश्नोईयों को अन्य लोग स्नानी कहते हैं और बड़ी ही श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि जो प्रातःकाल स्नान करेगा वह निश्चित ही परमात्मा का स्मरण, संध्या, हवनादिक शुभ कार्य करके उसके बाद वो अन्य कार्य करेगा। वह निश्चित ही धार्मिक व्यक्ति होगा तथा उनका अन्य लोगों से अधिक शरीर स्वस्थ रहेगा,प्रत्येक काम करने में सबसे आगे रहेगा। यही सभी कुछ एक स्नान के बदौलत से ही संभव हो सकती हैं। कुछ वर्षपूर्व तक इस स्नान के नियम का पालन अच्छी तरह से होता था। छोटे बच्चे को भी बिश्नोई के घर में बिना स्नान किए भोजन नहीं खिलाना जाता था, सभी के लिए स्नान करना अनिवार्य था। जिससे आगे चलकर आदत पड़ जाने से बिना स्नान किए भोजन नहीं कर सकते थे किन्तु इस समय कुछ शिथिलता नजर आ रही है। नियम की यह महत्वपूर्ण कड़ी यदि टूट जाएगी तो फिर यह श्रखला कैसे जुड़ पाएगी। अन्य शास्त्रकार इस नियम की महत्ता को नहीं देख पाए थे इसीलिए अधिक चर्चा का विषय नहीं बन पाया किन्तु जम्भदेवजी ने ठीक से पहचान करके अपने शिषयों के प्रति बनवाया था।

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